Sunday, August 9, 2009

॥श्री॥
लिखता हूं मातृरूणसे मुक्त होने के लिए
हवा सुगंधित करने के लिए
जिससे प्रफ़ुल्लित हो जाता है
वातावरण
कुछ इस तरह की
हर पेड खिल उठता है फ़ुलों से,फ़लों से
पृथ्वी हो जाती है समृध्द
जल,अनाज,बिजली
तथा सारी जरूरी चीजों से
संपन्न हो जाता है सारा मानव समाज
भौतिक सुविधाओं से परिपूर्ण
उन्नत जीवन जीने के लिए
होने लगते है सारे सपने साकार
संजीवक ,संप्रेरक एक सुखानुभव के रुपमें
सपनें महापुरुषोंके,युगपुरुषोंके
जिनकी छांव मे
हम सब पले बढें है
संपन्न आध्यात्मिकता कि धरोहर बनकर!
हम सदा ही रहें है अग्रसर
युगोंयुगोंके आंधियारे को मिटाते हूए
सूरज की तरह आसमान में .....
उसीके मुक्त प्रकाशमें घुमते है
सारे ग्रह-उपग्रह अपनी ऊर्जा को
धरती को सौंपते हुए
जो सदीयों से बांटती रही है प्यार
हर इन्सान को माता बनकर!
श्री.ग.अग्निहोत्री.

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